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लेखक रामकुमार कृषक के चुनिंदा ग़ज़लों के संग्रह ‘पढ़िए तो आंख पाइए’ का लोकार्पण समारोह और बातचीत


  • राधेश्याम तिवारी # 

कृषक जी करीब 45 वर्ष पहले अपने नवगीत संग्रह ‘ सुर्खियों के स्याह चेहरे ‘ के साथ मेहनतकश वर्ग के प्रति करुणा और दर्दमंदी की भावभूमि से शुरुआत करते हैं और इस दौरान यह भावभूमि और ज़्यादा गहरी और व्यापक होती जाती है । ‘ पढ़िए तो आंख पाइए ‘ की चुनिंदा ग़ज़लों में दुखी मनुष्यता के प्रति उनका यह भावबोध तो है ही, इन हालात के लिए जिम्मेदार वर्गों के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर भी है।

देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में यों तो अनेक आयोजन होते ही रहते हैं , परंतु उनमें से कुछ विशेष रूप से हमारी यादों में रह जाते हैं। 5 नवंबर को एक ऐसा ही आयोजन गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित हुआ। अवसर था सुपरिचित कवि , लेखक रामकुमार कृषक के चुनिंदा ग़ज़लों के संग्रह ‘ पढ़िए तो आंख पाइए ‘ का लोकार्पण समारोह और बातचीत ।

इस महत्वपूर्ण आयोजन के अध्यक्ष थे वरिष्ठ समालोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, और विशेष अतिथि थे अलवर से पधारे प्रसिद्ध आलोचक डॉ. जीवन सिंह । इन्होंने ही राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उक्त संग्रह की ग़ज़लों का चयन किया है , और भूमिका भी लिखी है। इनके और डा. त्रिपाठी के अलावा जो सम्मानित वक्ता मंच पर थे , वे थे डा. जानकी प्रसाद शर्मा , डा. बली सिंह , और डा. रहमान मुसव्विर। मंच संभाल रहे थे युवा समालोचक डा. विनय विश्वास , जिन्होंने प्रत्येक वक्ता का विस्तृत परिचय दिया और कृषक जी की रचनाशीलता की संक्षिप्त विवेचना भी की ।

इसके पूर्व कि ग़ज़लों पर बात शुरू होती, सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक संगठन निशांत नाट्यमंच द्वारा कृषक के एक जनगीत ‘ हम मज़दूर – किसान रे भैय्या , हम मज़दूर – किसान ‘ की संगीतमय प्रस्तुति की गई । इसके बाद सम्मानित वक्ताओं की बारी थी ।

पहले वक्ता थे डॉ. रहमान मुसव्विर। रामकुमार कृषक को हिंदी ग़ज़ल के शीर्षस्थ साधकों में बताते हुए उन्होंने कहा कि जीवन की विसंगतियां, बदलता हुआ सामाजिक ढांचा, राजनीति का विरूपित होता हुआ चेहरा, शोषित मज़दूर – किसान के कष्ट, और सांप्रदायिकता विरोध इनकी ग़ज़लों का मुख्य स्वर है । ग़ज़ल भाषा पर इनकी पकड़ विस्मित करती है। प्रत्येक विचार और शब्द को ग़ज़ल में ढालने का हुनर इन्हें खूब आता है । हिंदी ग़ज़ल का शिल्प उर्दू से आया ज़रूर है , लेकिन इसका स्वभाव हिंदी कविता के विकास से ही उद्भूत है। कृषक जी इसी परंपरा के पोषक हैं। कल को निश्चित ही इनकी ग़ज़लें संदर्भ बिंदू का काम करेंगी।

डा. बली सिंह का कहना था कि कृषक जी की ग़ज़लों से गुजरना दौरे – जहां से गुजरना है। इस दौर में ग्लोबलाइजेशन से हुआ यह है कि गैर – ज़रूरी चीजों का शोर बहुत है , और ज़रूरी चीजों पर गहरी चुप्पी छाई हुई है , जैसा कि कृषक जी ने कहा है — ” ऊंची कुर्सी काला चोगा यही कचहरी है / कोलाहल दीवारों जैसा चुप्पी गहरी है ! ” यही सांकेतिक गहराई ग़ज़ल की खासियत है। इसी अंदाज में बाज़ार पर इन्होंने कहा है — ” हम नहीं खाते हमें बाजार खाता है / आजकल अपना यही चीजों से नाता है ! ” आज का यही बाजार इस देश के सभी लोकतांत्रिक मूल्यों को खा रहा है। इनकी ग़ज़लों की एक खासियत ये है कि उनमें दृश्यात्मकता पाई जाती है , जो हमें जीवनस्थितियों से सीधे जोड़ने का काम करती है , और जिससे हमें समकालीन जीवन के अनेक रंगों और कठोर यथार्थ का बोध होता है।

इसके बाद बारी थी हिंदी – उर्दू पर समान अधिकार रखनेवाले डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा की । उन्होंने कहा कि कृषक जी करीब 45 वर्ष पहले अपने नवगीत संग्रह ‘ सुर्खियों के स्याह चेहरे ‘ के साथ मेहनतकश वर्ग के प्रति करुणा और दर्दमंदी की भावभूमि से शुरुआत करते हैं और इस दौरान यह भावभूमि और ज़्यादा गहरी और व्यापक होती जाती है । ‘ पढ़िए तो आंख पाइए ‘ की चुनिंदा ग़ज़लों में दुखी मनुष्यता के प्रति उनका यह भावबोध तो है ही, इन हालात के लिए जिम्मेदार वर्गों के विरुद्ध प्रतिरोध का स्वर भी है। कृषक जी दरसअल जन – प्रतिबद्ध कविता धारा के उन चंद रचनाकारों में से हैं , जिन्होंने भय और क्रूर हिंसा से भरे इस समय में अपने रचनात्मक हस्तक्षेप के लिए ग़ज़ल जैसी फार्म को चुना और विस्तृत किया । इनके यहां विषयों, अनुभवों और अभिव्यक्ति – रूपों का एक व्यापक रेंज नज़र आता है। उदाहरण के लिए इनके दो शेर देखिए — पहला : ” मैंने अपने शेर उठाए गलियों से फुटपाथों से / और सभी के मुंह धोए हैं अपने ही इन हाथों से ! ” और दूसरा शेर : ” हंसी तुम्हारी निर्झर जैसे / हंसे समूचा मंज़र जैसे ! ” तो यह रेंज है इनके यहां । इनकी ग़ज़लों का मिज़ाज भी यही है ।

जानकी जी के बाद समारोह के विशेष अतिथि की बारी थी। उन्होंने कहा कि कृषक जी की ग़ज़ल यात्रा उस समय से शुरू हुई , जब पिछली सदी में लोकतंत्र के समक्ष तानाशाही का संकट उपस्थित हुआ। दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें उसी प्रतिरोध की पहली सार्थक आवाजें हैं। प्रतिरोध की ऐसी ही आवाजें कुछ और बड़ी रेंज अथवा व्यापकता के साथ कृषक जी के यहां मौजूद हैं। इन्होंने ग़ज़ल को उसके राजनीतिक आयामों से आगे सामाजिक – सांस्कृतिक आयामों तक फैला दिया है । व्यवस्था से जुड़े बाहरी अंतर्विरोधों के साथ इनकी दृष्टि व्यक्ति के आंतरिक अंतर्विरोधों तक भी गई है । मसलन ये कहते हैं कि ” यूं तो अच्छा है जानना सबको / खुद से खुद को भी बाखबर रखना !” अथवा — ” हमने इस तौर मुखौटे देखे / अपना चेहरा उतारकर देखा ! ” जीवन सिंह ने आगे यह भी कहा कि जैसे हिंदी में ग़ज़ल शायरी का एक सामासिक काव्यरूप है , वैसे ही कथ्य और शिल्प दोनों दृष्टियों से कृषक की ग़ज़ल का स्वभाव समासधर्मी है । वह किसी भी तरह की एकरूपता को मनुष्यता के लिए खतरा मानती है। साथ ही इनकी ग़ज़ल भाषा भी इस बात का प्रमाण है कि ग़ज़ल में अंदाजे – बयां लाने के लिए एक अलग तरह की भाषिक व्यंजना की जरूरत होती है , और वह कृषक जी के पास है। इनका यह शेर देखें —

” यूं तो उम्मीद है नहीं कोई / फिर भी उम्मीद हो तो क्या कहिए ! ” यहां इनका जो भाषिक प्रयोग है , वह हमारे जीवन – यथार्थ को एक नई तरह का व्यंजनात्मक सौंदर्य सौंप देता है ।

और अब बारी थी मूर्धन्य विद्वान और साहित्यकार डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी की । उन्होंने कहा कि कृषक जी साहित्य – साधक हैं। ये आजीवन संघर्षरत रहे हैं। इनकी प्रगतिशील कविता इनके जीवन संघर्ष की उपज है और इनकी साधना इनकी कविता की उपज है। इनका व्यक्तित्व और कृतित्व हमारे लिए प्रेरणा का काम करता है । हिंदी ग़ज़ल को कृषक जी ने एक नया रूप दिया है। बेशक इनकी ग़ज़लें उर्दू ग़ज़लों से शक्ति तो लेती हैं , लेकिन उनका अनुकरण नहीं करतीं । और यह जानकार ही जानते हैं कि खड़ी बोली में ग़ज़लें कहना कितना मुश्किल काम है । उर्दू ग़ज़लें प्रायः ठहरी हुई , स्थापित सौंदर्यबोध की कविताएं हैं । वे मान्य और पारंपरिक इमेजेज़ के सहारे रची जाती हैं , किंतु कृषक जी की हिंदी ग़ज़लें पल – पल बदलती हुई और ठोकरें खाकर संभलती हुई ज़िंदगी की शिद्दत का बयान करती हैं। यही शिद्दत भाषा में भी दिखाई देती है । यह एक शेर देखें —- ” लोग रहते थे जिन मकानों में / खूब बदले हैं वो दुकानों में !” यह कोई आसान प्रक्रिया नहीं, बल्कि वह ऐतिहासिक यातना है , जिसे इन्होंने सहज भाषा में कह दिया है । यह साधना ही कृषक जी की सिद्धि है ।

कहना नहीं होगा कि समारोह हर तरह महत्वपूर्ण रहा । खासकर साहित्य – अनुरागी व्यक्तियों की उपस्थिति को लेकर । उनमें से कुछ उल्लेखनीय व्यक्तित्व थे : सर्वश्री संजीव , महेश दर्पण, हरियश राय, प्रदीप पंत, मदन कश्यप , शम्सुल इस्लाम, नीलिमा, अजय सिंह, शोभा सिंह, राकेश रेणु, सुभाष वसिष्ठ, राधेश्याम तिवारी, आनंद क्रांतिवर्ध़न, प्रीति प्रजापति, गोविंद प्रसाद, रमेश आज़ाद, हीरालाल नागर, प्रताप सिंह, राजा खुगशाल, श्याम सुशील, बलराम, प्रकाश प्रजापति, नवीन शर्मा, बालकीर्ति, कनुप्रिया, ओम नारायण, किशोर कुमार कौशल, नरेश दाधीच इत्यादि। और जिन आत्मीय जनों ने करीब 55 – 60 आगंतुकों का स्वागत – सत्कार किया, उनमें सर्वश्री प्रदीप कुमार आर्यन, कौशल कुमार, मनीष कुमार, जतिन, ऋषि शर्मा, अर्चना, नंदिता, गरिमा शर्मा आदि प्रमुख हैं।


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