- अभिनव उपाध्याय
राजधानी की होली साझी विरासत की निशानी है। वक्त के साथ इसके रंग का भी सूर्ख हुए तो कभी फीके, लेकिन अब भी दिल्ली के बड़े हिस्से में बिना किसी भेदभाव के सभी धर्म के लोग होली मनाते हैं।
उर्दू अदब के जानकार और दिल्ली के इतिहास और साझी संस्कृति पर लिखने वाले फिरोज बख्त अहमद कहते हैं कि दिल्ली की शाहजहांनाबादी मुगलिया होली के जो चटकीले और तीखे रंग उस समय हुआ करते थे, आज भी उनकी शोखी में कमी नहीं आई है। यह बताते हैं कि बहादुरशाह जफर की ‘होरिया’ में विशेष रूप से अमीरों, नवाबों, बादशाहों पर फब्तियां कसी जाती थीं। बीच-बीच में आवाज लगाई जाती थी कि बुरा न मानो होली है। इस रोज सब कुछ माफ था। सिराज उल अखबार का हवाला देते हुए फिरोज बख्त अहमद बताते हैं कि अखबार ने लिखा है कि होली क्या आती है, दिल की कली खिल जाती है। होली मिलन का त्योहार है। इस मुकद्दस त्योहार पर जात-जात का भेदभाव कम से कम एक रोज के लिए तो मिट ही जाता है।
मुल्ला नसीर फिराक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘लाल किले की एक झलक’ में लिखते हैं कि होली के मुगलिया रंगों की रंगीनी के समां का चित्रण शब्दों में नहीं उतारा जा सकता। मौसम बदला, हवा खुनकी (सर्दी) टूटी और जाड़ा भागा। बदलते मौसम की बहार नई उमंगों से भरपूर मस्ती, सुहावनी हवा और मदमस्त वातावरण सब कुछ बड़ा लुभावना लगता है। महेश्वर दयाल ने अपनी किताब ‘आलम म इन्तेख़ाब’ में लिखा है कि बसंत के आगमन पर देवी-देवताओं पर सरसों के फूल चढ़ाया जाना दिल्ली की प्राचीन परंपरा रही है।
सूफी भी रंगे : होली सूफियों के लिए भी खास रही है। निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरों ने होली के कई पद लिखे, जिसे कई गायकों ने न केवल गाया बल्कि आज भी औलिया के दरबार में कव्वाल लगभग हर मौके पर गाते हैं। दरगाह कमेटी के पदाधिकारी अल्तमस निजामी बताते हैं कि सूफी में होली पर भी खूब लिखा है, जिसे गाया जाता हैं कव्वला युसूफ निजामी बताते हैं कि रंग मजहबी नहीं हो सकते। अमीर खुसरों के होली के कलाम (रंग) पूरे मुल्क में तरन्नुम से गाए जाते हैं। हजारत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर अमीर खुसरों की यह रचना-आज रंग है, बड़े तरन्नुम के साथ गाई जाती है। साभार : एचटी